कोई मुझे बता दे कि शुकून कहाँ है ?
नजरें जिन्हे तलाशती वो हसीन मंज़र कहाँ है?
क्या पाना है जो हम बेचैन हैं इतना ?
कौन सी मंज़िल है कि है चाह इतना ?
हालात यूँ भी आये है कि दो वक्त की रोटी ही भाई है।
दो कपड़ों में महीनों बीताई है ।
यूँ अचानक लगा है कि
जींदगी के खर्च तो बहुत कम ही हैं,
बाहरी जींदगी की चकाचौंध ने,
हमारी जींदगी की ख़ाक उङाई है ।
शुकून तो सेहत से है,
घर वो हसीन मंज़र है ,
अपनों की मुस्कुराहट में,
अपनी मंज़िल पाई है। ।
~ अमिता सिंह~~
ओडिशा बाईकरनी
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