बाबा, देखो खङी हुँ मै,समक्ष तुम्हारे ।
सिंदूर, बिदिया, चुङी, पायल-बिछुआ पहने।
खुश हो ना तुम यह मेरी छवि देख कर ,
इस रूप के लिए इस सिंदूर के लिए,
कितनी कुर्बानियां देकर पैसे जोङे थे तुमने ।
तुम्हें मैं देवी स्वरूप लग रही हुँ ,
न्योछावर हुए जा रही है ये मूक हृदय तुम्हारी
मैं खिलखिला कर, इठला कर तुम्हारे सामने खङी हुँ ।
चित्कार कर रहा है मेरा भी मूक हृदय यहाँ ।
सबको खुश करने की कोशिश मेरी,
तुम तक ना पहुंचे कोई शिकायत मेरी,
इसी ज़दो ज़हद में है सुबह शाम मेरी ।
इतने बरस बीत गये उस आँगन में मुझे,
कोई तुझ सा खोजें ना मिला,
पराये ही लगे सब कोई अपना ना मिला ।
चीख रहा अब स्वाभिमान मेरा,
बाबा मैं तो थी अभिमान तेरा,
क्यो खङी हुँ इस घर में कुसूरवार सी,
तेरी जीत थी बाबा,अब हुँ इस घर की हार सी।
बाबा, कोई खुश ना हुआ इतने साल में मुझसे,
तो क्यु ना जी लु अब अपने हाल पे,
करुँ वो सब जो बैठी थी मै त्याग के,
क्यु ना मैं ही अब खुश हो लूं जी लूं पंख पसार के,
गीर जाऊं जो बाबा, फिर बाहों में अपने छुपा लेना ।
रख लेना अपने पास मुझे संभाल के।।
~~अमिता सिंह
(ओडिशा बाइकरनी)
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